
नई दिल्ली,20 : महाराष्ट्र के जनमानस मे सोलापूर जिले मे स्थित पंढरपूर के विठ्ठल रखमाई का बहुत बडा महत्त्व है. हर साल विठ्ठल रखुमाई का दर्शन पैदल किया जाता है जिसे वारी कहा गया है । विठ्ठल को माऊली (माँ) भी कहा जाता है ।
वारी, महाराष्ट्र की विठ्ठल-रखुमाई भक्ति परंपरा का एक अभिन्न अंग है, जो वारकरी संप्रदाय की आध्यात्मिक यात्रा को दर्शाती है। यह परंपरा संत ज्ञानेश्वर, संत तुकाराम, संत एकनाथ जैसे महान संतों द्वारा स्थापित की गई थी। प्रत्येक वर्ष आषाढी और कार्तिकी एकादशी के अवसर पर लाखों वारकरी पंढरपुर के विठ्ठल मंदिर में दर्शन के लिए एकत्रित होते हैं। वारी केवल एक धार्मिक यात्रा नहीं, बल्कि सामाजिक समता, भक्ति और सांस्कृतिक एकता का प्रतीक है।

वारी ( पैदल चलना) की परंपरा लगभग 800 वर्ष पुरानी मानी जाती है। संत ज्ञानेश्वर (1275-1296) ने भक्ति मार्ग को प्रोत्साहन दिया और उनकी पालखी यात्रा ने वारी को एक ठोस स्वरूप प्रदान किया। इसके बाद संत नामदेव, संत एकनाथ और संत तुकाराम ने इस परंपरा को और समृद्ध किया। वारकरी संप्रदाय भगवद्गीता, ज्ञानेश्वरी और तुकाराम गाथा पर आधारित है, जिसमें भक्ति, वैराग्य और समता को प्राथमिकता दी गई है। पंढरपुर का विठ्ठल-रखुमाई मंदिर इस संप्रदाय का केंद्र है। विठ्ठल को पांडुरंग या विठोबा के नाम से जाना जाता है और उन्हें भगवान विष्णु का अवतार माना जाता है। वारी का इतिहास भक्ति आंदोलन का इतिहास है, जिसने मध्ययुग में सामान्य लोगों को ईश्वर से जोड़ने का माध्यम प्रदान किया। संतों द्वारा रचित अभंग और कीर्तन ने वारी को आध्यात्मिक और सांस्कृतिक आधार दिया, जिससे यह सामान्य जनजीवन का अभिन्न हिस्सा बन गई।
महाराष्ट्र की वारी एक पैदल यात्रा है, जो पैदल चलते है उन्हे इस संप्रदाय मे वारकरी कहा जाता है. अपने गांवों से पालखी जुलूस के साथ पंढरपुर की ओर प्रस्थान करते हैं। यह यात्रा मुख्य रूप से दो पालखियों के इर्द-गिर्द घूमती है: संत ज्ञानेश्वर पालखी, जो आलंदी (पुणे) से शुरू होती है, जहां संत ज्ञानेश्वर ने समाधि ली थी; और संत तुकाराम पालखी, जो देहू (पुणे) से शुरू होती है, जहां संत तुकाराम का जन्मस्थान है। ये पालखियां 21-22 दिनों में लगभग 250-300 किलोमीटर की दूरी तय कर पंढरपुर पहुंचती हैं। प्रत्येक पालखी जुलूस में दिंडियां (भक्तों के समूह) होती हैं, जो कीर्तन, भजन और अभंग गाते हुए चलती हैं। वारकरी विठ्ठल की भक्ति में लीन होकर, सादा जीवन जीते हुए पैदल चलते हैं और सामाजिक भेदभाव को भूलकर एकजुट होते हैं। कीर्तन और भजन भक्तों को प्रेरणा देते हैं, जबकि रिंगण (गोल घुमना ) इसमे घोड़ोंपर बैठकर तय धुरीपर उत्साहपूर्ण समारोह मे घुमाया जाता है | जिससे वारकऱियों में जोश भरता है। प्रत्येक गांव के वारकरी एक दिंडी में शामिल होते हैं, जो पालखी के साथ चलती है। वारकरी एक-दूसरे को भोजन, आवास और पानी जैसी सेवाएं प्रदान करते हैं, जिससे सामाजिक बंधन मजबूत होते हैं। वारी में तुलसी का पौधा, माला, भगवा ध्वज, टाल-मृदंग का समावेश होता है, जो वारकरी संप्रदाय के प्रतीक हैं। यह यात्रा भक्तों को संयम, सहनशीलता और भक्ति सिखाती है।
वारी केवल एक धार्मिक यात्रा नहीं, बल्कि सामाजिक-सांस्कृतिक उत्सव भी है। इसमें जाति, धर्म, लिंग का कोई भेद नहीं होता; सभी वारकरी समान माने जाते हैं। पैदल चलना और सादा जीवन वारी को पर्यावरण के अनुकूल बनाता है। मराठी साहित्य, संगीत और लोककला का संगम वारी में देखने को मिलता है। अभंग, ओव्या(लयबद्ध लोक गीत) और कीर्तन मराठी संस्कृति को संरक्षित करते हैं। वारी भक्तों को वैराग्य, संयम और भक्ति का महत्व सिखाती है। ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के लोग एक साथ आते हैं, जिससे सामाजिक एकता बढ़ती है। संतों के विचार और भक्ति गीत सामान्य लोगों को आध्यात्मिक बल प्रदान करते हैं, जिससे वारी केवल एक धार्मिक क्रिया नहीं, बल्कि एक जीवनशैली बन जाती है।
आधुनिक समय में वारी का स्वरूप बदल गया है। अब कई वारकरी बस, ट्रैक्टर या अन्य वाहनों से पंढरपुर पहुंचते हैं, लेकिन पारंपरिक पैदल वारी का महत्व अब भी बरकरार है। तकनीक के कारण वारी का लाइव प्रसारण, सोशल मीडिया पर प्रचार और ऑनलाइन दर्शन संभव हो गया है। फिर भी, वारी का मूल तत्व—भक्ति और समता—अखंडित है। लाखों वारकऱियों के कारण सड़कों, आवास और स्वच्छता का प्रबंधन चुनौतीपूर्ण है। प्लास्टिक के उपयोग और कचरा प्रबंधन पर नियंत्रण आवश्यक है। भीड़ के कारण सुरक्षा उपायों की जरूरत होती है। महाराष्ट्र सरकार और स्थानीय प्रशासन की और से वारकरी को कोई तकलीफ ना हो इसका पूरा प्रबंधन किया जाता है. साथ ही स्थानिक लोगो द्वारा वारकरी को मूलभूत सुविधाये स्वयंस्फूर्त तरीके से प्रदान की जाती है. जैसे चिकित्सा सुविधाएं, पानी की आपूर्ति और स्वच्छता योजनाएं। आधुनिक सुविधाओं ने वारी को नया रूप दिया है, लेकिन इसका आध्यात्मिक और सांस्कृतिक वारसा आज भी जीवंत है।
माना जाता है इन वारकरीयो मे कोई विठ्ठल बनकर आपके सामने आ सकता है और आपको पता भी नही चलेगा. एक अभीभूत करने वाला आपको चारो और दिखाई देगा. इस यात्रा मे शामिल और इस यात्रा मे मदत करने वाले दोनो भी एक दुसरे के प्रति कृतज्ञता की भाव से देखते है और माऊली कहकर संबोधित करते है.
दिल्ली की प्रतीकात्मक वारी: एक नया आयाम
दिल्ली मराठी प्रतिष्ठान द्वारा 2021 से आयोजित प्रतीकात्मक वारी, महाराष्ट्र की वारी का एक प्रतीकात्मक स्वरूप है। 2025 में, 6 जुलाई को आषाढी एकादशी के अवसर पर यह अपनी पांचवीं वर्षगांठ मनाएगी। यह वारी सुबह 5:45 बजे बाबा खड़क सिंह मार्ग पर प्राचीन हनुमान मंदिर से शुरू होकर आर.के. पुरम के विठ्ठल मंदिर तक जाएगी। सहभाग के लिए पंजीकरण अनिवार्य है:
इस वारी की विशेषता मराठी और गैर-मराठी भक्तों की बढ़ती भागीदारी है। कीर्तन, भजन और दिंडियों के माध्यम से मराठी संस्कृति दिल्ली में जीवित रहती है। गैर-मराठी भक्तों में पांडुरंग और वारी के प्रति जागरूकता बढ़ रही है। हालांकि यह वारी पारंपरिक वारी जितनी लंबी नहीं है, लेकिन यह भक्ति, समता और सामूहिकता का संदेश देती है। दिल्ली मराठी प्रतिष्ठान ने मराठी समुदाय को एकजुट किया है और गैर-मराठी भक्तों में भी भक्ति का प्रसार किया है।
वारी केवल पंढरपुर या विठ्ठल मंदिर तक पहुंचने की यात्रा नहीं, बल्कि अपने भीतर पांडुरंग को खोजने का आध्यात्मिक सफर है। महाराष्ट्र की वारी भक्ति, समता और सांस्कृतिक एकता का जीवंत प्रतीक है। संतों द्वारा स्थापित यह परंपरा आज भी लाखों लोगों को प्रेरित करती है। दिल्ली की प्रतीकात्मक वारी ने इस संदेश को राष्ट्रीय स्तर पर पहुंचाया है, मराठी और गैर-मराठी भक्तों को पांडुरंग की भक्ति में एकजुट किया है। 6 जुलाई 2025 को होने वाली प्रतीकात्मक वारी में सभी को भाग लेकर इस पवित्र परंपरा को और मजबूती प्रदान करनी चाहिए।