“उच्च न्यायपालिका में समानुपातिक प्रतिनिधित्व से ही कायम हो सकती है न्यायपालिका की निष्पक्षता” -चौधरी लौटनराम निषाद

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लखनऊ,26 सितम्बर। समाजवादी पिछडावर्ग प्रकोष्ठ के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष व राष्ट्रीय निषाद संघ के राष्ट्रीय सचिव चौ.लौटनराम निषाद ने लोकसेवा आयोग, उत्तर प्रदेश अधीनस्थ कर्मचारी सेवा चयन आयोग, संघ लोकसेवा आयोग आदि की भर्तियों में कट ऑफ मार्क्स के आधार पर कोटा निर्धारण की मांग की है।
उन्होंने कहा कि पूर्व में जिस भी ओबीसी, एससी, एसटी प्रतियोगी की कट ऑफ मेरिट सामान्य के बराबर या ऊपर होती थी, उसका समायोजन आरक्षित कोटे में न कर अनारक्षित में किया जाता था, लेकिन इलाहाबाद उच्च न्यायालय के एक वर्गीय पक्षपातपूर्ण निर्णय से आरक्षित वर्ग 49.5% में ही सीमित कर दिया गया है। इसका स्पष्ट मतलब है कि सामान्य वर्ग की जातियों को अघोषित तौर पर 50.5% आरक्षण कोटा दे दिया गया है, जो असंवैधानिक व नैसर्गिक न्याय के प्रतिकूल है।
ओवरलैपिंग व्यवस्था को खत्म करना बिल्कुल पक्षपातपूर्ण व अन्यायपरक निर्णय है। श्री निषाद ने बिहार विधानसभा के दलित-आदिवासी विधायकों के वर्गीय हित में दलीय सीमा से ऊपर उठकर प्रदर्शन की सराहना व स्वागत करते हुए कहा कि उत्तर प्रदेश के पिछड़े, दलित व आदिवासी विधायकों का तो लगता है सत्तालोलुपता व कुर्सी मोह में ज़मीर ही मर गया है। आरक्षण विरोधी निर्णय के विरुद्ध बिहार के 40 दलित-आदिवासी विधायकों में से 22 ने दलीय भावना से ऊपर उठकर आरक्षण विरोधी नीति के विरुद्ध प्रदर्शन किया, जो वर्गीय चेतना व संवेदना का परिचायक है।
श्री निषाद ने बताया कि उत्तर में सत्ता पक्ष के 120 ओबीसी, 76 एससी/एसटी के विधायक हैं, जिनके अंदर तनिक भी वर्गीय चेतना होती तो सरकार बैकपुट पर आ जाती। उत्तर प्रदेश में एक-एक कर आये दिन पिछड़ा-दलित आरक्षण व कोटा विरोधी निर्णय आ रहा है, पर भाजपा व सहयोगी दल की विधायक सुषमा पटेल, राकेश राठौर के अलावा सभी के सभी गूंगे-बहरे बन चुप्पी साधे हुए हैं।
जिस दिन उत्तर प्रदेश के पिछड़े-दलित विधायकों का ज़मीर जाग जाएगा और उनके अंदर वर्गीय संवेदना पैदा हो जायेगी, उसी दिन योगी सरकार औंधे मुंह धड़ाम से गिर जाएगी और कोई पिछड़ा-दलित मुख्यमंत्री बन जायेगा।
श्री निषाद ने उच्च न्यायपालिका में आरक्षण कोटे की मांग करते हुए कहा कि जब तक न्यायपालिका में समानुपातिक प्रतिनिधित्व की व्यवस्था नहीं होगी, कॉलेजियम सिस्टम खत्म नहीं होगा, तब तक न्यायपालिका में निष्पक्षता नहीं आ सकती। उन्होंने कहा कि जब जूनियर और सीनियर ज्यूडिशियरी में आरक्षण की व्यवस्था है, तो हायर ज्यूडिशियरी में क्यों नहीं?
उन्होंने उच्च न्यायपालिका में कॉलेजियम पद्धति से न्यायाधीशों के चयन को असंवैधानिक और जातिवादी तरीका बताया। अभी कुछ दिनों पूर्व उत्तर प्रदेश से उच्च न्यायालय में न्यायाधीशों को नामित करने के लिए इलाहाबाद हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश द्वारा केन्द्र को जो 70 लोगों की सूची भेजी गई है, उसमे मात्र एक पूर्व न्यायाधीश सभाजीत यादव के बेटे का नाम ओबीसी के रूप में है। श्री निषाद ने राष्ट्रीय न्यायिक सेवा चयन आयोग के द्वारा यूपीएससी व पीएससी प्रतियोगी परीक्षा पैटर्न पर न्यायाधीशों के चयन की मांग की है।
श्री निषाद ने कहा कि एससी/एसटी को आजादी पूर्व से ही कार्यपालिका व विधायिका में समानुपातिक प्रतिनिधित्व की व्यवस्था है, लेकिन ओबीसी को मात्र कार्यपालिका में 27% आरक्षण 16 नवम्बर,1992 के इन्दिरा साहनी बनाम भारत सरकार के मामले में उच्चतम न्यायालय के निर्णय के बाद मिला है, जो उनकी जनसंख्या का आधा भी नहीं है।
सेन्सस-1931 की जातिगत जनगणना के अनुसार ओबीसी की 52.10% आबादी थी।1999 के बाद तमाम जातियों को इस सूची में जोड़ने से यह संख्या और अधिक हो गयी है। भाजपा सरकार के समय गठित उत्तर प्रदेश सामाजिक न्याय समिति-2001 की रिपोर्ट के अनुसार ओबीसी की संख्या 54.05% थी।
सामान्य वर्ग की जातियों की संख्या-20.94% थी, जिसमें मुस्लिम सामान्य वर्ग (शेख, सैय्यद, पठान, मुगल, मिल्की आदि) की जातियाँ भी शामिल थीं। अविभाजित उत्तर प्रदेश की कुल जनसंख्या में सवर्ण-20.50%(ब्राह्मण-9.2%, राजपूत-7.2%, वैश्य-2.5%, कायस्थ-1.0%, भूमिहार-0.04%, खत्री-0.1%, त्यागी-0.1%) थे।
अनुसूचित जातियों/अनुसूचित जनजातियों की संयुक्त संख्या-21.34% थी। इस दृष्टि से ओबीसी की संख्या 58.16% थी। उत्तराखंड के अलग होने से जहाँ उत्तर प्रदेश में ओबीसी व एससी की संख्या बढ़ गयी होगी, वही एसटी व सवर्ण की घट गई होगी। 1999 में जाट व कलवार को ओबीसी में शामिल करने से ओबीसी की संख्या 60% से अधिक हो गयी है।
श्री निषाद ने कहा कि यही कारण हैं कि केन्द्र की कांग्रेस सरकार ने वादा करने के बाद भी 2011 में जातिगत जनगणना नहीं कराई और सेन्सस-2021 में ओबीसी की जातिगत जनगणना कराने का वादा करने के बाद भाजपा सरकार भी पीछे हट गई है, जो अवैधानिक है। आखिर ओबीसी की जातिगत जनगणना कराने से कौन सी राष्ट्रीय क्षति हो जाएगी।
सेन्सस-2011 के अनुसार एससी, एसटी, धार्मिक अल्पसंख्यक समुदाय (मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, बौद्ध, जैन, पारसी, रेसलर) के साथ ही साथ दिव्यांग व ट्रांसजेंडर की जनसंख्या की घोषणा कर दी गयी, पर ओबीसी की जनसंख्या घोषित नहीं की गई।