बहुजन नायक ना होते तो आज हमारे जैसे लोग पढ़े-लिखें ना होते

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आत्महत्या बोल कर पल्ला झाड़ लेंगे तो क्या जिन कारणों की वजह से किसी ने आत्महत्या का रास्ता अख़्तियार किया वो ख़त्म हो जाएंगे?फिर ये आत्महत्या रोहित की हो या अनिता की। सवर्ण एट्रोसिटीज़ का शिकार बने अछूत छात्रों की आत्महत्या एक व्यक्ति की नहीं है, समुदाय को संबोधित करती हुई सरकारी हत्या है।

जाति देखकर होता व्यवहार

यहाँ प्रत्येक स्तर पर जाति देख कर व्यवहार होता है, फिर चाहे स्कूल-कॉलेज हो या यूनिवर्सिटीज। चमरा का लड़का या चमरिया, जातिगत कॉमेंट-गालियाँ ऐसे शब्द स्कूल में भी बेहद आम हैं, जो टीचर भी प्रयोग करतें हैं और सवर्ण स्टूडेंट्स भी।अछूत होने की वजह से टॉयलेट्स भी साफ़ करातें हैं और सीवर भी। जातिगत प्रताड़ना से तंग आकर हर साल हजारों दलित बच्चे स्कूल छोड़ देतें हैं। यूनिवर्सिटीज में भी दलित विद्यार्थियों के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार होता है।

जिंदगी खत्म करने का ही बचटा है रास्ता

आरक्षण और आरक्षित वर्ग के स्टूडेंट्स के प्रति सवर्णों में बेहद घृणा भरी होती है। वे उन्हें अयोग्य मानते हुए सरकारी दामाद, कोटा वाला कहकर फब्तियां कसते हैं। एडमिशन, इंटरव्यू, हॉस्टल, लाइब्रेरी, मेस, इंटरव्यू, प्लेसमेंट हर जगह जातिगत आधार पर भेदभाव होता है। कभी-कभी इस हद तक टॉर्चर होता है कि जिंदगी ख़त्म करने का एक मात्र रास्ता बचता है।

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बराबरी के हक़ पढ़ाई के रास्ते से ही हैं

2007 में गठित सुखदेव थोराट कमिटी ने भी अपनी रिपोर्ट में शिक्षण संस्थानों, एग्जाम और इंटरव्यू सहित प्रत्येक क्षेत्र में दलित छात्रों के साथ होने वाले जातिगत भेदभाव का उल्लेख किया है। समिति द्वारा की गई सिफारिशें अब तक भी स्वीकार नहीं की गई है। ये सब इसलिए कि पीढ़ियों से उनकी गुलामी करते आए अछूत आगे ना बढ़ सकें। यह सच है कि बहुजन छात्रों के लिए यूनिवर्सिटीज़ स्लॉटर हॉउस बनती जा रही है ,पर हमारी आज़ादी, बराबरी के हक़ पढ़ाई के रास्ते से ही हैं।

अभी मुश्किल से अछूतों की दूसरी पीढ़ी के कुछ लोग यूनिवर्सिटीज तक पहुँच पाएं हैं। सवर्णों की बापौतिया अधिकारों, प्रिविलेज और मैरिट को धता बताकर तमाम संघर्षों के बाद भी सफलता का परचम लहराते अछूत छात्र उन्हें स्वीकार नहीं हो सकते। वो हर कोशिश कर रहें हैं आपको सवर्णों के बापौतिया क्षेत्र में आने से रोकने के लिए।

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बनाई जा रही हैं आरक्षण विरोधी नीतियाँ

आरक्षण विरोधी नीतियाँ, सीट कट, विभेदकारी नीतियाँ, भेदभाव, टॉर्चर उन्हें बाहर रखने के लिए चौतऱफ़ा हमले की ही स्ट्रेटजी है। ऐसी नीतियाँ बना रहें हैं कि दलित छात्र मेरिट में आने के बाद भी मुश्किल में हैं। यूँ ही नहीं रोहित या अनिता को मरना पड़ा। आने वाले समय में ये संघर्ष तेज़ होने वाले हैं, जैसे-जैसे अछूत जागरूक होंगे, पढ़ेंगे-लिखेंगे और हिंदू धर्म को खारिज़ करेंगे।संघर्ष बहुत हैं, पर हमें हारना नहीं है। बाबासाहेब, सावित्रीबाई-ज्योतिबा फुले, फ़ातिमा आई, पेरियार जैसे बहुजन नायक हारे होते तो मैं या आप आज इस पढ़े-लिखे नहीं बल्कि किसी गटर में पड़े होते।

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(लेखिका- दीपाली तायडे,साभार -मध्यमार्ग)