माँ की ममता, माँ की क्षमता, जिसका दिखता नहीं किनारा

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साहित्य मंडल ने मनाया काव्यमय मातृदिवस
कवियों ने माँ की महिमा का किया गुणगान
गोंदिया। मदर्स डे वर्ष में एक दिन मनाना विदेशी संस्कृति का परिचायक है। भारतीय संस्कृति मेंं माँ का सर्वोच्च स्थान है। माँ प्रत्येक श्वांस -श्वांस में बसती है इसलिए हमारी संस्कृति में प्रत्येक दिन मातृदिवस है। उपरोक्त उद्गार शहर के प्रसिद्ध कवि एवं वक्ता श्री रमेश शर्मा ने भिन्न भाषी साहित्य मंडल गोंदिया द्वारा आयोजित काव्यमय मातृदिवस मेंं कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए व्यक्त किये। अतिथि के रूप में सेवानिवृत्त डिप्टी कलेक्टर श्री दुर्गेश सोनवाने उपस्थित थे। कवि छगन पंचे के निवास गजानन कालोनी में १२ मई रविवार को संध्या आयोजित कार्यक्रम का शुभारंभ अध्यक्ष, अतिथि द्वारा माँ सरस्वती के छायाचित्र के पूजन व कवि शशि तिवारी के मधुर स्वर मेंं शारदा वंदना से हुआ।
काव्य पाठ का आगाज करते हुए युवा कवि निखिलेशसिंह यादव ने “माँ से जीवन में लय-ताल, इतना ध्यान जरा रखना। गर तुम माँ के सच्चे लाल, इतना ध्यान जरा रखना। माँ के आँसू कहते नहीं कुछ, सुख इसमें बह जाता है, तो भूल से भी न भीगे गाल, इतना ध्यान जरा रखना”, छगन पंचे ‘छगन’ ने “जिन्दगी, जिन्दगी भर यूँ ही हमें सताती रहे,
जिन्दगी मेंं जिन्दगी भर माँ की याद आती रहे”,
चैतन्य मातुरकर ने “एक भाकर मोडून चार भावाना वाटते, माय आम्ही लेकरांची अशी भावना जोडते”, डा.प्रभाकर लोंढे ने “जन्म दिला तू भार वाहला सर्वस्व आहे तुझा, काय माझं आई”, शशि तिवारी ने “माँ गंगा की निश्छल धारा, माँ जीवन की तारणहारा, माँ की ममता, माँ की क्षमता, जिसका दिखता नहीं किनारा”, रमेश शर्मा ने “ऋण माँ के अनगिनत हुए, चुका सका कब कौन? लौटाने के वक्त हम, क्यों रहते हैं मौन?”
जैसी काव्यपंक्तियों से आयोजन को सार्थकता प्रदान की। वहीं वरिष्ठ कवि प्रकाश मिश्रा ने “कोई सन्यासी मन मौन स्वीकृति दे जाए, मैं अनब्याही साधों का ब्याह रचा डालूं, दे आऊं निमंत्रण सूरज की प्रथम किरण को और साँसों का सुंदर नगर बसा डालूं” एवं दुर्गेश सोनवाने ने “पराए दर्द को सीने मेंं पालकर देखो,पराए गम मेंं आँखों से आँसू निकालकर देखो, अगर है हिम्मत तो इतना कर दिखाओ तुम, इस लाश में एक जान डालकर देखो”, जैसी काव्य रचनाओं से कविगोष्ठी को गरिमामय बनाया।अपने विशेष अंदाज में प्रसिद्ध कवियों द्वारा माँ पर रचित मुक्तकों व शेरों के साथ संचालन कवि चैतन्य मातुरकर ने किया। आभार छगन पंचे ने माना।