“कर्ज माफी” – किसान को ???

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@अधिवक्ता लखनसिंह कटरे,
(Retd. DDRCS)
बोरकन्हार (झाड़ीपट्टी) -441902, जि. गोंदिया।
(पुनर्लेखन – 11.09.2021)(मराठी पोस्ट हिंदी में – अनुवाद किया है इंजि.गोवर्धन बिसेन ने)

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>> वैसे देखा जाए तो, मुझे “कर्ज माफी” यह अवधारणा पसंद नहीं है। मैं यह भी सोचता हूं कि कर्जदार ने कर्ज चुकाना ही चाहिए। मैं उस समय के अविभाजित भंडारा और अब गोंदिया जिले के सबसे पिछड़े तालुका सालेकसा में 1988 से 1990 तक एक TARCS था। उस समय उस तालुका में कृषि ऋण की वसूली कभी भी 20-25% से अधिक नहीं होती थी। मैंने PACS और ACS पदाधिकारियों और समूह सचिवों/बँक प्रबंधकों की लगातार संयुक्त बैठकें कीं और उन्हें ऋण वसूली के महत्व और सहकारी संगठन के वित्त के बारे में जानकारी दी। परिणामस्वरूप, उस तालुका की फसल ऋण वसूली 75% से अधिक होने लगी। लेकिन 1988 की “कर्ज माफी” योजना के बाद, वसूली दर में गिरावट शुरू हुई। किसान मुझसे पूछते थे कि क्या हमने कर्ज चुकाकर मूर्खता की, बकाया-कर्जदारों के कर्ज माफ हुए और ईमानदार मूर्ख ठहरे। मैं अपने आप को ही ठीक से जवाब नहीं दे पा रहा था।
>> उसके बाद मैंने साकोली (जि. भंडारा), रामटेक (जि. नागपुर), अर्जुनी/मोरगाँव (जि. भंडारा/गोंदिया) में TARCS के रूप में भी काम किया और सहकारी संगठन के पदाधिकारियों और समूह सचिवों/प्रबंधकों को प्रेरित कर फसल ऋण की वसूली 75% से ऊपरही रखने मे सफल रहा। अर्जुनी/मोरगांव तालुका की फसल ऋण वसूली लगातार 4-5 वर्षों से 100% थी। (तत्कालीन जि.म.स बैंक भंडारा के तत्कालीन SRO और CEO इसके साक्षी है/होंगे।)
>> मार्च 2003 से अप्रैल 2006 तक, चंद्रपुर में DDRCS के जिलास्तरीय पदपर कार्यरत रहते वक्त, फसल ऋण वसूली दर 70-75% से ऊपर रखने के लिए मुझे DCCB, PACS, ACS, स्टाफ का पूरा समर्थन मिला। लेकिन अब धीरे-धीरे “कर्ज माफी” की अवधारणा सर्वव्यापी होती जा रही थी और इससे भी महत्वपूर्ण बात यह कि सरकार की किसानों को ठगने की नीति(?) भी जोरों पर थी। वैकल्पिक रूप से, कृषि उपज/वस्तुओं की लागत से भी कम कीमत के कारण किसान अपने ऋण का भुगतान नहीं कर सकते थे। शरद जोशी के इस तथ्य/सच्चे उद्घाटन से किसान भी धीर-धीरे इस तथ्य से अवगत हो गये थे, कि सरकार की “कर्ज माफी” यह कोई माफी नहीं बल्कि “लूट वापसी है”।

>> इस दौरान टाटा सर्विसेज लि. द्वारा प्रकाशित और सिद्धार्थ राय और आर.जी.कटोती द्वारा संपादित महत्वपूर्ण लघु पुस्तिका “भारत की सांख्यिकीय रूपरेखा 2003-2004” मेरे पढ़ने में आयी। तब यह आधिकारिक तौर पर महसूस किया गया कि हमारी सरकार बड़े औद्योगिक घरानों के लाखों करोड़ रुपये के कर्ज कैसे झटके में माफ(?) करती है। और जो किसान सरकारी लूट से पीड़ित है वह कर्ज माफी के लिए “पात्र”(?) नहीं है, क्योंकि किसानों के लिए कर्ज माफी का मतलब बैंक डूबने का डर है!!! और फिर मेरी सोचने की प्रक्रिया पुनर्जीवित हो गई।

>> यही हाल मेरे यवतमाल के DDRCS के कालावधी में भी बरकरार थे। हालांकि, यवतमाल में फसल ऋण वितरण के साथ ऋण वसूली के लिए भी मेरे और मेरे कार्यालय द्वारा किए गए सहयोग(?) को DCCB YML इनकार नहीं कर सकता। मेरे गडचिरोली के कार्यकाल को मद्देनजर रखते हुए DCCB गडचिरोली भी इसकी गवाही दे सकता है। वैसे भी,
यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि कर्जमाफी प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष हो, चाहे कुछ(?)/कैसे(?) भी हो यह एक “छूट” या “माफी” नहीं बल्कि आज तक की सरकारी नीति द्वारा किसानों की, की गई “लूट की वापसी” भर है। जबकि यह सौ प्रतिशत सच है, “किसानों की कर्ज माफी” यह किसानों की दुर्दशा का समाधान नहीं है! इस किसान-दुर्दशा का केवल एक ही सक्षम, तर्कसंगत, संवैधानिक, आर्थिक, सम्मानजनक समाधान है, और वह यह है कि, किसानों को उनकी उपज का उचित मूल्य वाणिज्यिक और व्यावहारिक आधार पर प्राप्त करने में उन्हे सक्षम बनाए ऐसी वैधानिक और सुगम व्यवस्था का निर्माण करना। इस तरह के समाधान का प्रावधान करना बिल्कुल भी असंभव या अनुचित या असंवैधानिक भी नहीं है। दो साल की अवधि के भीतर-भीतर इस तरह के समाधान/व्यवस्था का निर्माण करना आसानी से संभव है। इसके लिए ऐसी कृषी-विषयक नीतियों को लागू करना होगा जो तथाकथित कम्युनिस्टों, हिमखंडप्रवृत्तियों जैसे समाजवादियों, मिथ्या-अर्थशास्त्रियों, छद्म-मानवतावादियों, प्रच्छन्न विकासवादियों के ढांचे को तोड़ देंगी। इसके लिए हमेशा विकसित होते महात्मा गांधी और उनकी समयसापेक्ष/कालातीत विचारधारा को अमल में लाना होगा। लेकिन यही तो घोड़ा अड़ जाता है! कोई फर्क नहीं पड़ता कि किसकी/किस पार्टी की सरकार है, क्योंकि इंडिया के सरकारी-विचारकों की दृष्टि में, किसान हित और कृषीविषयक सम्यक सोच का पूरी तरह अभाव है। और इस अभाव के चलते किसान-हित में कुछ सकारात्मक होना दुुभर ही लगता है।

>> संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत किसानों के मौलिक संवैधानिक अधिकार, जिसे अस्थायी/नामांकित संसद ने 1952 में हुई पहली लोकसभा के चुनाव/स्थापना से पहलेही (शायद अनधिकृत!) 1951 (18 जून) में ही संविधान संशोधन द्वारा अनुच्छेद 31B का रोड़ा डालकर, किसानों से छीन लिया गया है, यह तथ्य हमारे किसान अभीतक ठीक से जान नही पाए है। अगर उस मौलिक संवैधानिक अधिकार को पूर्ववत बहाल कर दिया जाता है, तो यह कदम किसानों पर राजरोस सरकार के उत्पीड़न, अन्याय और जबरदस्ती को रोकने और वैकल्पिक रूप से किसानों को “कर्ज माफी” की गलतफहमी से मुक्त करने में सहायक होगा। परंतु ………….. ????? यह परंतु ही असली जड़ को जकड़े हुए है।

>> इस मामले की मेरी समझ में, जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है, सकारात्मक बदलाव के कारण, मैंने अपनी सेवावधी के दरमियान इस संबंध में वरिष्ठों को कुछ वैकल्पिक, सक्षम प्रस्ताव भी प्रस्तुत किए हैं/थे। और आज भी मुझमें “कर्ज माफी” की अवधारणा को पचा पाने की हिम्मत नहीं है। मैं इस बात से इनकार नहीं कर सकता कि किसान को किसी भी नाम से दी गयी कर्ज-माफी यह माफी या छूट न होकर, आजतक की गयी किसान के सरकारी लूट की वापसी मात्र है! और इस “लूट वापसी” के लिए सही मानदंड(?) निर्धारित करना ही आज किसान-हित में होगा, यह मुझ अल्पमति का आकलन है। वैसे भी, कहा जाता है कि “सत्ता के आगे बुद्धि नहीं चलती” और मैं अभी तक इस “तथ्य” को नकारने की शक्ति तक नहीं पहुंचा हूं, तो मैं इसके बारे में किसान भाईयों से माफी माँगने के अलावा और क्या कर सकता हूँ?
माफ कर देना मेरे किसान भाईयों !!!
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